Skip to main content

ना जाने इनको क्या हुआ है...

कुल्हड़ पानी से
भरा हुआ है
और बिछे हुए हैं
दानें लेकिन
उड़ जाती है गौरैय्या
बिन चुगे, बिन चहचहाये...
न जाने इसको क्या
हुआ है...
देखती है दूर से 
टकटकी लगाए वो 
अधखुली रसोई की 
बंद पड़ी उस खिड़की को 
बढ़ जाती है ख़ामोशी से
बिन खाए-बिन रम्भाये
हाँ, दूर कहीं से आती है
भूरी सी वो गाभिन गाय..
न जाने इसको क्या
हुआ है...
करके नाटक सोने का
पड़ा हुआ है सिकुड़ा सा
जो पीछे-पीछे आता था
हर बात पे दुम हिलाता था
घर के आगे मंडराता था
पालतू सा, लड़ियाता था
मोहल्ले का ये मरियल कुत्ता
न जाने इसको क्या
हुआ है...
सूख गए चटकीले गुड़हल
खिले-खिले ही डालों पे...
फैल गयीं हैं बे-तरतीब
तुलसी कच्चे आँगन में
पास रखा मिट्टी का दीया
हरिया गया है काई से
न जाने इसको क्या
हुआ है...
अब तक मन में बसी हुई है
कसैली-खट्टी-मीठी गंध
घर पे कुटे मसालों की
नये डले अचारों की
ताज़ा मख्खन आंच में
धीरे-धीरे पिघलता था
पकते घी की खुशबू से
घर पूरा महकता था
गूँजती हैं बातें उसकी
सयानी थोड़ी भोली सी
‘क्या बनाऊं, क्या खाना है’
‘नए चावल आ गए क्या’
‘पापड़-चीले बनाना है’
प्रश्न भी उसका, उत्तर भी
समझदार वो, अल्हड़ भी
स्टूल के ऊपर चढ़ जाती
फिर सारे डिब्बे खड़काती
‘चीनी कम है, गुड़ ख़तम है”
“ये इत्ता सा, वो ढेर पड़ा है”
‘ओहो, बेसन को धूप दिखाना है’
‘साबुत उड़द भिगाना है’
‘अरे, ये रखी है मिर्च खड़ी’
‘कल सबकी नज़र उतारूंगी’
‘एकादशी है अगले हफ्ते’
‘फरियाली सब बनाउंगी’
‘राजगीरे के आटे का ’
‘हलवा सबको खिलाऊँगी’
रसगुल्ले की बची चाशनी
कभी बेल के शरबत में,
या इमली की चटनी में
चुपके से वो मिलाती थी
रेसिपी पढ़ अखबारों से
नयी डिशेज़ बनाती थी
परात-पतीले-करछुल-झारे
दुबके से वो पड़े हैं सारे
ना जाने इनको
क्या हुआ है...
खाली ponds के डिब्बे से
मज़बूत गुल्लक बनाती थी
खुजरे-चिल्ल्हर-नोट-छुट्टे
पाई-पाई बचाती थी
‘कपड़ों को तह करते-करते ’
‘पहाड़े याद कराती थी’
झुंझलाहट में कभी-कभी
दो-चार हाथ लगाती थी
पुचकार के बड़े प्यार से
फिर अपने पास सुलाती थी
गप्पे जमघट हंसी ठिठोले
इस कमरे में होते थे
पंचांग कैलेन्डर कोरे हैं
हिसाब जिसपे होते थे
आरोग्यधाम कल्याण के
स्टॉक पुराने होते थे
शरत, टैगोर, मुंशी निराला
शिवानी, रानू, गुलशन नंदा
बंद हैं सारे अलमारी में
न जाने इनको
क्या हुआ है...
छोटे से इस मंदिर में
प्राण-प्रतिष्ठित मूर्तियाँ
बेजान-पुरानी लगती हैं
वो नए फ्रेम में जड़ी हुई  
जीवंत कहानी लगती है
यूँ- कि जैसे कह रही हो-
‘आरती ले लो जल्दी से’
‘प्रसाद लेकर आती हूँ’
मन करता है मन्नत में
मांग लूँ मैं तुझको माँ
आज,
न जाने मुझको
क्या हुआ है

-जया सरकार-

Comments

  1. Very touching
    I salute you dear
    God gifted u this talent of writing.
    Lv u
    Shaku didi

    ReplyDelete
    Replies
    1. Thank you di. I cherish the beautiful time that we have spent in Abu Dhabi. It gave me an opportunity to know you more only to get inspired by you.

      Delete
  2. You writes are so effective Jaya! This one is the ultimate!! Emotions in practicality!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. Thanks Gopa. It makes me feel wonderful to share my writings with you. Your feedback enriches me as a writer and as a person.

      Delete
  3. Aankhen bhar aayi ! Such amazingly apt and beautiful recollections of childhood. Reminded me of 'Woh Kaagaz ki kashti.....'

    ReplyDelete
  4. Aankhen bhar aayi ! Such amazingly apt and beautiful recollections of childhood. Reminded me of 'Woh Kaagaz ki kashti.....'

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

Once a Cadet is Always a Cadet… The last Sunday of November is observed as NCC Day. I am thrilled to share my story as a cadet. It began when I was in school.  While watching the direct telecast of the Republic Day celebration, I randomly asked my father, “When would Pakistan attack India?” It was such an annoying question that everyone frowned at me but my father knew what was reeling in the head of his 13-year-old daughter. So he replied, “Humm, you want to go to the battlefield and kill the enemies.” “Yes, yes…” I answered enthusiastically. “Good, then why don’t you join NCC in your school and train yourself first before going to the border.” He replied, unlike a typical father. This struck my first chord with NCC. The only objective was to be the front-runner on the battlefield. This used to be the idea of patriotism for most of the teenagers. Becoming an NCC cadet was not a cake-walk then. We had to qualify to be...

नट-सम्राट

जयंत  -  मेरे   शहर   का   नटसम्राट ...    1980  के   दशक   में   रायपुर   मेडिकल   कॉलेज   में   अखिल   भारतीय   नाट्य   स्पर्धा   का   आयोजन   होता   था  I  नाटक   देखने   के   लिए   गर्ल्स   कॉलेज   से   लड़कियों   की   टोलियाँ   जाया   करतीं   थीं   और   उन   टोलियों   को   देखने   के   लिए   शहर   के   तमाम   कॉलेजों   के   लड़कों   का   हुजूम   वहां   पहुँच   जाता   था।   पूरा   माहौल   ही   नाटकमय   होता   था। पीएमटी   में   मेरा   सिलेक्शन   नहीं   हो   पाया   लेकिन   नाटकों   की   वजह   से   मेडिकल   कॉलेज   में   आना - जाना   ज़रूर   लगा   रहा । मैं   कॉलेज   के   दिनो...

आधा चाँद, पूरी मैं

चंपा की दो डालियों के बीच से, या बादलों की आड़ लेकर, रोज़ रात भर झांकता है और अपनी नज़रें गड़ाएं रखता है मुझपे- सुबह होने तक I कौन ? अरे, वही आधा-अधूरा पगला चाँद I जहाँ भी जाऊं मेरे साथ-साथ चल पड़ता है I जैसे गली के किसी लड़के को पहला-पहला प्यार हुआ हो, मोहल्ले की किसी लड़की से I घटता-बढ़ता, छिपता-छिपाता और बादलों के घेरों को तोड़ता कितनी मशक्क़त करता है वो, बस, मेरी एक झलक पाने के लिए I कभी सामना हो जाए है तो एक पल के लिए भी मेरे चेहरे से नज़र नहीं हटाता I सच कहूँ तो मैं भी बीच-बीच में देख लेती हूँ उसकी तरफ I कई बार वो झेंप के झट से बादलों के पीछे छुप जाता है I लगता है कि बादलों के साथ बड़ी दोस्ती है उसकी , तभी तो उसके एक इशारे पे उसके सामने आ जाते हैं और अपने पीछे छुपा लेते हैं उसको I चाँद के साथ मेरी ये लुका-छिपी, नज़रें मिलाना-चुराना काफी समय से चल रहा हैI कभी-कभी लगता है चाँद और बादल आपस में खेलते रहते हैं कभी चाँद आगे तो कभी बादल I उड़ते बादल हैं, पर लगता है जैसे पंख चाँद के निकल आये हों I जब हार-जीत का भय ना हो और भीतर से उन्मुक्तता हो तो खेलने का अपना ही  आनंद होता है ...