My Fellow Woman...
आंख बंद करके
कपाल-भाती करना शुरू ही किया था कि ठुमक-ठुमक चलती हुई आकर मेरी गोद में पैर रखके
चढ़ गई और सहम के चिपक गई मुझसे I शायद वो डर गई थी कि ये अचानक मुझे क्या हो गयाI
मैंने झट से अपनी आँखें खोली और उसे ज़ोर से अपने सीने से लगा लियाI
वो थोड़ी देर यूँ ही
चिपकी रही मुझसे I पता नहीं क्या रिश्ता है इससे मेरा, जब भी इसे अपने सीने से
लगाती हूँ, इसके दिल की धड़कन मुझे मेरी अपनी सी लगती हैI एक सुखद सी गुदगुदाहट भर जाती है मेरे अन्दरI
मैंने पुचकारते हुए उसकी तरफ देखा तो एक गहरी मुस्कराहट आ गई उसके चेहरे परI जैसे
बड़ी राहत मिली हो उसे, ये जानकार कि मैं नार्मल हूँ I मैं कपाल-भाती करते हुए किसी
कपालिक जैसे ही लगती रही होंगी, शायदI
चार दांत आ गए हैं
इसकेI दो ऊपर के और दो नीचे के. इन्हीं चार दांतों की बदौलत आजकल गाजर, मटर, अमरूद
सब कुतर-कुतर के खा जाती हैI लगता है जैसे घर पे एक छोटी सी गौरैय्या आ गई होI
नज़रें ज़रा सी चूकी नहीं कि बेखौफ़ होकर तेज़ी से सीढ़ी चढ़ जाती हैI ऊपर पहुंचके अपनी
गोल-गोल चमकीली आँखों से ऐसे देखती है मानो सफलता की सीढ़ी चढ़ के आई होI
उम्र के हर पड़ाव में
सफलता के सिग्निफिकेंस और मायने बदल जाते हैंI गिरने के बाद कोई सम्हालने वाला हो
तो गिरने का डर और दर्द दोनों ही कम हो जाता हैI और यदि गिरने का डर ना हो, तो ऊपर
जाना आसान हो जाता हैI
इत्मिनान से अख़बार
पढ़े हुए न जाने कितने दिन हो गए हैंI कभी फाड़ देती है तो कभी खुले अखबार पर आकर बैठ
जाती है और मुस्कुराके शरारत से देखती हैI लगता है खुद ईश्वर ने अपने आपको प्रमोट
करने के लिए इसे सुन्दर इश्तिहार बनाके भेजा है, इस टैग लाइन के साथ- “कल की रद्दी
के लिए, इस पल का कचरा क्यों”!
क्या रखा है इन ख़बरों
और उनसे जुड़ी इंटेलेक्चुअल बहस और विवादों में I वैसे भी अब कोई भी खबर, ताज़ा नहीं
लगतीI सैकड़ों ज़रियों से समाचारों को दिमाग में ठूंसा जाता है सारा दिन I घटना ख़तम
हुई नहीं कि सचित्र साझा हो जाती हैI खबर पूरी पढ़ सुन नहीं पाते कि प्रतिक्रियाओं
और टिप्पणियों की बोम्बार्डिंग शुरू हो जाती हैI अखबार बंद किया तो टीवी चालू, वो
बंद किया तो स्मार्ट फ़ोन-एक नेसेसरी इवलI
सुबह जब ये
मुस्कुराके उठती है तो सपनों में मिलने वाली परियों का तो पता नहीं, लेकिन ये खुद
एक नन्ही सी परी ज़रूर लगती हैI कभी-कभी खेलते-खेलते अपने गाल मेरे गालों से सटा के
लाड़ जताती है, कभी मुझे एक निवाला खिलाने के लिए अपना छोटा सा हाथ बढाती है, जब मैं
अपने काम में व्यस्त रहूँ तो झुक के मेरा चेहरा देखती है और नकली सी हंसी हंसती
है, मुझे हँसाने के लिए I कितनी भी व्यस्त रहूँ ,एक असली मुस्कराहट आ जाती है, इसे
देख कर I
मेरा दुपट्टा अपने
कन्धों पे लपेटने के चक्कर में इधर-उधर गिरती-पड़ती मेरे पास आकर, मेरी गोद में सर
रखके अपना अंगूठा मुँह में डाल लेती हैI इसका मतलब है कि अब उसे नींद आ रही हैI
अपनी बात समझाने के लिए भाषा माध्यम हो, ये ज़रूरी नहींI ये भी सीख रही है दुनियादारीI
उसकी आँखों की हर
बात समझ में आती है मुझेI माँ हूँ आखिर, इसकी नहीं हूँ, पर क्या फ़र्क पड़ता है I
‘माँ-पन’ औरत के चरित्र का एक हिस्सा है I मैं अपने माता-पिता और सास ससुर से लेकर
अपने भाई बहनों और दोस्तों की और यहाँ तक कि अपने पति की भी माँ बन जाती हूँ,
ज़रूरत पड़ने पर I
ये ‘माँ-पन’ तो उसी दिन
तय हो गया था, जिस दिन मैं एक औरत बनके पैदा हुई थी I अब मैं अपनी माँ को और भी
अच्छे से समझ पाई हूँ I अब उसके प्रति मेरा मन, प्रेम के साथ-साथ श्रद्धा और
कृतज्ञता से भी भर गया हैI
जब पहली बार मै माँ
बनी थी 21 की थीI आज 30 साल बाद नयी-नयी माँ वाले पुराने काम फिर से नए ढंग से,
ज्यादा consciously कर रही हूँ I दूध की
बोतल, सुसु, पॉटी साफ़ करने से लेकर छोटी सी प्लेट में खाना लेकर उसके पीछे-पीछे
घूम-घूम के खिलाने में ज़रा भी चिढ़चिढाहत नहीं होतीI
जब गर्भ मे बच्चा होता
है, तो माँ के खाने पर बच्चे का पेट भरता है, लेकिन जब वो बच्चा दुनिया में आ जाता
है, तो ठीक उल्टा होता है- बच्चा खाए तो माँ का पेट भरता हैI ये अजीब सा
बायो-स्पिरिचुअल कनेक्शन हैI
कभी-कभी भागती-भागती
थक जाती हूँ और उसी के साथ सो जाती हूँI मैं पहले जागी तो मैं उसको धीरे से
थपथपाकर सुला देती हूँI लेकिन अगर वो मुझसे पहले उठ जाए तो मेरी पलकों के बाल खींच-खीँच
के उठा देती है मुझे! मेरी नटखट, मेरी ठुमुक-ठुमुक, मेरी अफलातून...पता नहीं कितने
नामों से रोज़ पुकारती हूँ उसकोI
एक साल की हो गई- शिवानी.
हाँ, यही नाम है उसका, ये भी मैंने ही रखा हैं- सरल, मासूम और प्यारा, बिलकुल उसी
की तरहI
कौन है शिवानी- ये
एक यक्ष प्रश्न है. इसका जवाब बहुत मुश्किल हैI
मेरा कोई रिश्ता
नहीं है इससेI बड़े ही टेढ़े-मेढ़े रास्ते पार करके मेरे पास आई है ये, कब तक रहेगी, कह
नहीं सकती I
हमारे देश में बहुत
से लोग बेटियों को जन्म ही नहीं देना चाहतेI बेटा होना ख़ुशी के साथ दंभ का कारण
होता है, अभी भी! समय थोड़ा बदला है, लेकिन कुछ ही तबकों में!
ऐसे माता-पिता जिनके
केवल बेटियां होती हैं, सार्वजनिक रूप से स्वीकारते हैं कि उन्होंने बेटों को मिस
नहीं किया, बेटियों को ही बेटों की तरह पाला हैI
मैं भी पूरी
ज़िम्मेदारी से कहती हूँ कि मुझे बेटी की कमी का एहसास नहीं हुआ क्योंकि अपने बेटों
को, बेटे और बेटी के दायरे में कभी रखा ही नहींI हमारे दो बेटे हैं I आज वो अच्छे
मुकाम पर हैं, तो गर्व ज़रूर होता है! वो अच्छे और नेक इंसान हैं, इस बात का संतोष
भी है, और ख़ुशी भीI
यदि बेटियां होती तो
भी मेरा ‘माँपन’ कम नहीं हो जाता. बेटा हो या बेटी, अपना हो या किसी और का क्या
फ़र्क पड़ता है. ममता निस्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा है. प्रेम, दया, करुणा ये सब
इनबिल्ट प्रोग्राम हैंI पता नहीं कब किस रूप में बाहर आते हैंI ममता शायद इन सभी
का मिला-जुला स्वरुप है, जो आज फिर रिफ्रेश हो गया है.
Thank
you for this, Shivani-My fellow woman…
-जय हो-
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